Friday, July 11, 2008

अगली गोष्ठी कब होगी?


अभी कुछ निश्चित नहीं है. जब तय हो जाएगा तो सूचना दे दी जाएगी.

राहुल
बहे जीवन जैसे बहे रिवर्स, बहे फ़ॉरवर्ड नहीं बहे रिवर्स




28 जून की गोष्ठी का ब्यौरा

28 जून को मौसम बहुत अच्छा था इसलिए कुछ कम लोग आ पाए। लेकिन मौसम आया, और मौसम की तरह उसका साथ बहुत अच्छा लगा।

एक बार किसी ने मुझसे पूछा था कि कविता, ग़ज़ल, नज़्म, रुबाई, छंद, सवैया, कुंडली आदि में क्या अंतर है। सोचा ये इंटरनेट पर कहीं न कहीं तो मिल ही जाएगा। सारी जानकारी तो नहीं मिली, लेकिन कुछ मदद इस शोधकार्य से अवश्य मिल सकती है।

कवि गोष्ठी में क्या हुआ?

प्रशांत खरे ने तुलसी दास रचित रामचरितमानस में से एक छंद सुनाया जिसमें श्री राम कौशल्या की संतान भी है और ईश्वर भी।

निहित कौल ने अपनी विरह कविता छोड़ कर अन्य ग़ज़ल/कविताएँ सुनाई। लयबद्ध।

मौसम ने अपनी माँ (रंजना अग्रवाल) और नानी की बेहतरीन ग़ज़लें गा कर सुनाई।

अभिनव शुक्ल ने अपनी नई कविताओं को प्रस्तुत किया। उनमें से एक थी महाभारत के उस प्रसंग पर जब अर्जुन और दुर्योधन श्री कृष्ण के पास जाते हैं उन से सहायता मांगने - कुरुक्षेत्र के युद्ध में।

मैंने निम्नलिखित कविताएँ सुनाई -
उसकी बातों में 'गर दम होता
बिचारा हिंदू
बदलते ज़माने के बदलते ढंग हैं मेरे
जो दबता है उसी को दुनिया दबाती है
वो लम्हा
घड़ी


तीन पैरोडी
मैंने पूछा एन-आर-आई से
एन-आर-आई
जवानी

दो कामेडी
पंचलाईन
पंचलाईन #2


और एक व्यंग्य
सोना

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रामचरितमानस का छंद:

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी ।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी ।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी ॥
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता ।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता ॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता ।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता ॥
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै ।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै ॥
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै ।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ॥
माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा ।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ॥
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा ।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ॥
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महाभारत का प्रसंग:
महाभारत का युद्ध प्रारंभ होने में कुछ दिन ही शेष थे। कौरव और पाण्डव अपनी-अपनी तैयारियाँ कर रहे थे युद्ध के लिए। अपने-अपने पक्ष के राजाओं को निमंत्रित कर रहे थे। भगवान श्री कृष्ण को निमन्त्रित करने के लिए अर्जुन और दुर्योधन दोनों एक साथ पहुंचे। भगवान ने दोनों के समक्ष अपना चुनाव प्रश्न रखा। एक ओर अकेले शस्त्रहीन श्रीकृष्ण और दूसरी ओर श्रीकृष्ण की सारी सशस्त्र सेना-इन दोनों में से जिसे जो चाहिए वह माँग ले। दुर्योधन ने सारी सेना के समक्ष निरस्त्र कृष्ण को अस्वीकार कर दिया; किन्तु अपने पक्ष में अकेले निरस्त्र भगवान् कृष्ण को देखकर अर्जुन मन-ही-मन बड़ा प्रसन्न हुआ। अर्जुन ने भगवान् को अपना सारथी बनाया। भीषण संग्राम हुआ। अन्ततः पांडव जीते और कौरव हार गये। इतिहास साक्षी है कि बिना लड़े भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन का सारथी मात्र बनकर पाण्डवों को जिता दिया और शक्तिशाली सेना प्राप्त करके भी कौरव को हारना पड़ा। दुर्योधन ने भूल की जो स्वयं भगवान् के समक्ष सेना को ही महत्त्वपूर्ण समझा और सैन्य बल के समक्ष भगवान, को ठुकरा दिया।
Pasted from <http://pustak.org/bs/home.php?bookid=4190>